ऑपरेशन सिंदूर: मातम बना मातृभूमि का श्रृंगार
ऑपरेशन सिंदूर: मातम बना मातृभूमि का श्रृंगार
22 अप्रैल 2025 की सुबह, पहलगाम की वादियों में वो सुकून पसरा था। देखकर हर किसी का मन कह उठे “काश, यहीं ठहर जाए ज़िंदगी।” धरती पर फैली घास की हरियाली, दूर तक बर्फ से ढके पहाड़, नीला आसमान और उनकी गोद में खेलते बच्चे, आपस में अठखेलियां करते नवयुगल, हँसते-खिलखिलाते सैलानी और इन हसीन नज़ारों को देख कर मुस्कुराते स्थानीय लोग…सब कुछ मानो जन्नत की तस्वीर हो। कोई जीवन साथी के साथ बर्फ़ की फुहारों में प्रेम के पल बाँट रहा था। कोई अपने बच्चों को कश्मीरी चाय का स्वाद चखाते हुए कह रहा था, “याद रहेगा यह सफ़र…” लेकिन उन्हें क्या पता था कि यह याद अधूरी रह जाएगी, अंतिम रह जाएगी।
…और फिर एक धमाका हुआ, एक ऐसी आवाज़, जिसने न सिर्फ घाटी के सुकून को तहस-नहस किया, बल्कि पूरे मुल्क के दिल को दहला कर रख दिया। चंद लमहों में चीखें, कोहराम, भगदड़ और खून से लथपथ शरीर। पहलगाम का सुकून किसी ज़ख़्मी इतिहास में बदल गया था। उस वादी में, जहां प्रेम के गीत गूंजने चाहिए थे, मातम का संगीत था।
26 निर्दोष लोग मार दिए गए। उनमे एक मासूम बच्ची थी जो पहली बार बर्फ देख रही थी, उसका स्कूल प्रोजेक्ट 'कश्मीर की वादियाँ' अधूरा रह गया। एक नवविवाहित जोड़ा था जिसने 'नए जीवन' की शुरुआत के लिए पहलगाम को चुना था, अब उनके कमरे में दो टिकटें और एक बंद डायरी पड़ी है। एक बूढ़ी माँ थी जो बेटे के नौकरी लगने की खुशी में माथा टेकने पहुंची थी, अब उसके हाथ में बस राख है, चूड़ियाँ नहीं। उनकी जिंदगी वहीं रुक गई और पूरा देश भी रुक गया। सब कुछ थम गया। टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज की लाल पट्टियाँ दौड़ रही थीं, लेकिन जिन घरों के दरवाज़े अब कभी नहीं खुलने थे, वहाँ सिर्फ सन्नाटा था।
भारत सिर्फ आँसू बहाने के लिए नहीं बना...देश रो रहा था तब सरहदों पर जवानों की आँखें लाल हो चुकी थीं। उनकी चुप्पी में एक ज्वालामुखी दहक रहा था। उन्होंने अपने मृत भाइयों के शरीर नहीं देखे, राख में बदली हुई उम्मीदें देखीं। उन्हें पता था कि ये हमले सिर्फ़ ज़ख़्म नहीं देते, बल्कि सवाल खड़े करते हैं और फौज का जवाब कभी शब्दों में नहीं होता, वह गोलियों, रणनीति और निशाने में होता है। सेना ने कुछ नहीं कहा, कोई बयान नहीं, कोई प्रदर्शन नहीं, कोई ट्वीट नहीं। बस, एक रात, चुपचाप ऑपरेशन सिंदूर की योजना तैयार हो चुकी थी।
सिंदूर क्यों…? क्योंकि जो कुछ हुआ, वो सिर्फ एक हमले का जवाब नहीं था। यह एक माँ के माथे से उजड़ चुके बेटे का खून था, जो देश की मांग में सिंदूर बनकर समाया। यह एक जवान की अंतिम साँसों की कसक थी, जो अब हवा में नहीं, दुश्मन की नींद में गूंजेगी। यह नाम नहीं, एक भावना था, जो बताता था कि भारत जब मौन होता है, तब उसकी आत्मा जागती है। यह सिर्फ सैन्य प्रतिकार नहीं था, यह उन असंख्य नागरिकों के सपनों का प्रतिशोध था जो एक छुट्टी, एक तस्वीर या एक आख़िरी यात्रा के लिए आए थे।
7 मई 2025 की वह रौद्र भरी सुबह। अभी सूरज भी पूरी तरह नहीं निकला था कि हवा में एक अजीब सी खामोशी तैरने लगी। राफेल विमानों ने उड़ान भरी, बिल्कुल वैसे जैसे कोई सर्जन अपने चाकू से सटीक कट लगाता है। कोई घबराहट नहीं, कोई शोर नहीं। बस लक्ष्य, ललकार और लहू। घड़ी ने चार बजाए, अंधेरे में सिर्फ इंजन की गूंज थी। टारगेट्स की स्क्रीन पर नाम नहीं थे, बस वो चेहरे थे, जिन्हें खो दिया था। एक जवान ने निशाना साधते हुए कान में फुसफुसाया — 'ये मेरी बहन के आँसू हैं, अब उड़ाओ इन्हें।' फिर बटन दब गया।
बहावलपुर में जैश का ट्रेनिंग कैंप, अब सिर्फ एक गड्ढा। मुरीदके में लश्कर का हथियार डिपो, धुआँ और राख। पाक अधिकृत कश्मीर में पाँच आतंकी अड्डे, जहां कभी बम बनते थे, अब खामोशी बसी है। भारतीय सेना ने कोई जश्न नहीं मनाया। उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कोई बयान नहीं दिया। बस, एक बात कही- “हमने अपना काम किया है। न्याय हुआ।”
शहीद की चिट्ठी अंतिम संस्कार में पढ़ी गई...“माँ, मुझे पता है तू रोएगी, लेकिन रोना मत। तेरे आँसू मेरी आत्मा को बेचैन करेंगे। अगर मेरी शहादत से कोई बच्चा ज़िंदा रह जाए, तो समझना कि तेरा बेटा मरा नहीं, अमर हो गया।” और माँ ने वही चिट्ठी अपने बेटे की राख के साथ गंगा में प्रवाहित कर दी। आँखों से नहीं, दिल से रोते हुए।
ऑपरेशन सिंदूर महज़ युद्ध नहीं, एक जवाब था। पाकिस्तान ने कहा-भारत ने युद्ध छेड़ दिया, लेकिन भारत ने सिर्फ इतना कहा "हमने जवाब दिया है, चेतावनी नहीं। अगली बार जवाब नहीं, अंजाम होगा।" ये सिर्फ एक सैन्य ऑपरेशन नहीं था। यह एक राष्ट्रीय भावना का विस्फोट था। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र का शांति से हटकर, गरजना से बोलना था। अब पूरी दुनिया को पता है, भारत जब चुप होता है तब सबसे ज़्यादा खतरनाक होता है।
संयुक्त राष्ट्र की नींद टूटी, व्हाइट हाउस और डाउनिंग स्ट्रीट की बैठकें तुरंत बुलाईं गईं। भारत अब वो नहीं था जिसे सिर्फ शांति का उपदेश दिया जाता था। दुनिया देख रही थी कि चुप रहने वाला देश गरजे तो गूंज सीमा पार जाती है।
अंत नहीं, यह एक नई शुरुआत है। अब पहलगाम की घाटियाँ फिर से हँसने लगी हैं। उस हँसी में एक चुभन है, एक एहसास है कि यहां कभी बेदर्दी की धुआं उड़ा था। उस चुभन ने ही फौज को ताक़त दी। अब जब कोई उस घाटी में जाएगा, तो सिर्फ बर्फ नहीं देखेगा। वह वहाँ सिंदूर देखेगा। लहू से सना हुआ, पर गर्व से चमकता हुआ। जिस धरती पर खून गिरा, वहाँ फूल नहीं, सिंदूर उगा। अगली बार जब कोई नवविवाहित जोड़ा पहलगाम की बर्फ में तस्वीर लेगा तो उनकी मांग में सिर्फ सौंदर्य नहीं, एक कहानी भी होगी। एक शहादत की, एक जवाब की, एक भारत की…।
Arshad Rasool
Comments
Post a Comment