जातिवाद की जड़ें वाकई बहुत गहरी हैं

जातिवाद की जड़ें वाकई बहुत गहरी हैं

आशीष सक्सेना
जातिवाद  की जड़ें वाकई बहुत गहरी हैं। हालांकि बदलाव भी है। गहराई नापने के लिए नगर निगम में नाला सफाई करने वालों का जायजा लिया गया। अब इस काम में गैर वाल्मीकि भी हैं, ओबीसी जातियों के भी हैं। वे भी वही काम करते हैं और वाल्मीकि भी, मतलब नाला सफाई। इसके बावजूद जब हाजिरी के लिए सब बैठे होते हैं और कोई वाल्मीकि अपने हाथ से उन्हें प्रसाद भी दे तो वे नहीं लेते, सुर्ती भी नहीं खाते उनके हाथ की।
     बदलाव ये है कि दलित जातियों में जाटव, धोबी आदि अगर शिक्षित और नौकरपेशा हैं तो उन्हें थोड़ी जिद्दोजहद के बाद कमरा मिल जाएगा गैर दलित के बीच। पिछड़ी जातियों में यादव, कुर्मी, मौर्य काफी मुखर और सशक्त हो गए हैं लेकिन ब्राह्मणवादी सोच के लोगों को शीर्ष पदों पर नहीं सुहाते। हम तो एक उदाहरण ही देंगे फिलहाल।
    केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री संतोष गंगवार सात बार सांसद बन गए लेकिन उन्हें कभी कैबिनेट में नहीं लिया गया। इसकी क्या वजह हो सकती है, उनका चेहरा ज्यादा चिकना नहीं है या वे कुर्मी हैं इसलिए। प्रदेश में जो अगड़म बगड़म सरकार भाजपा की चल रही है उसका कोई बेहतर नतीजा नहीं आना है। क्या पता जब सब गड़बड़ हो जाए तो केशव प्रसाद मौर्य को मुख्यमंत्री बनाकर ठीकरा फोड़ दें।
     कुछ एबीवीपी से निकले दलित और पिछड़ी जातियों के आरएसएस कार्यकर्ताओं को जानता हूं मैं। काफी अच्छी परफॉर्मेंस थी उनकी लेकिन वे आगे नहीं बढ़ पाए या बहुत छोटी सी बढ़त देकर उन्हें राजी रखा। जबकि उनके जूनियर कई ऐसे भी हैं जो सवर्ण होने की वजह से डंका बजा रहे हैं शीर्ष जगहों पर
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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