सच्चाई जानकर शिक्षामित्रों से हमदर्दी करें

सच्चाई जानकर शिक्षामित्रों से हमदर्दी करें

बहुत से कथित काबिल लोगों की शिक्षामित्रों के बारे में नकारात्मक राय है। ऐसा नहीं है कि किसी भी समूह में सभी नाकाबिल होते हैं या सभी काबिल हों। शिक्षामित्रों का समायोजन रद्द होने के बाद उन पर क्या बीत रही है, यह वही जानते होंगे। दुख की इस घड़ी में उनका समर्थन करने के बजाय नकारात्मक बातें की जा रही हैं मैं जो गलत है। उनकी काबिलियत पर शक न करते हुए तथ्यों के धरातल पर भी जाना जरूरी है-
  •  सन 2000 से पहले शिक्षक बनने की योग्यता इंटर थी। उसी आधार पर शिक्षा विभाग ने ग्राम पंचायत और न्याय पंचायत स्तर पर मेरिट के आधार सबसे योग्य अभ्यर्थी मानकर शिक्षामित्रों का चयन किया। ईमानदारी और पारदर्शिता के लिहाज से पंचायती राज व्यवस्था की बुनियादी इकाई ग्राम पंचायत को चयन की जिम्मेदारी दी गई। तमाम स्कूलों में ताले लटके रहते थे, वहां जाकर शिक्षा विभाग को संजीवनी देने का काम इन शिक्षामित्रों ने ही किया। उस समय के हालात के अनुसारये योग्य थे, मानदेय सिर्फ 2250 रुपये था।
  • 1998 से पहले जो शिक्षक नियुक्त हुए वह भी हाई स्कूल और इंटर पास ही थे। आज बी.एड. की डिग्री का राग अलापकर शिक्षामित्रों को अयोग्य बताया जा रहा है। यह डिग्री वह हायर एजुकेशन के लिए है और टी.जी.टी. परीक्षा में शामिल होने के लिए है।
  • शिक्षामित्रों को लगाने के बाद भी शिक्षा विभाग शिक्षकों की भारी कमी से जूझता रहा तो बी.एड. डिग्री वालों को शिक्षक के रूप में भर्ती किया गया। अगर शिक्षामित्र गलत थे तो बेसिक शिक्षा विभाग में बी.एड. भी गलत है। 
  • आज शिक्षामित्र समायोजित किए गए तो उनको शिक्षा का अधिकार कानून के तहत जरूरी बी.टी.सी. का प्रशिक्षण ग्रेजुएशन कराने के बाद ही दिया गया। यदि इनको टी.ई.टी. जरूरी है तो तत्कालीन सरकार और उसके नौकरशाहों को ठोस नियमावली बनानी चाहिए थी। इस विषय पर चिंतन-मनन करना ही होगा कि दोष तत्कालीन सरकार का है या शिक्षामित्रों का? फिर असल दोषियों को ही सजा दी जानी चाहिए।
  • यदि इनकी नियुक्ति की तिथि को आधार नही बनाया गया है तो टी.ई.टी को 2013 से लागू न करके 2000 के बाद जो भी शिक्षकों नियुक्तियां हैं, उन सब पर लागू किया जाना चाहिए। सबकी काबिलियत का अंदाजा लग जाएगा।
  • शिक्षामित्रों की नियुक्ति से पहले यूपी बोर्ड का रिजल्ट 30-35 फीसदी रहता था। यह प्रतिशत आज 100 तक पहुंच गया है। ऐसे में उस समय अपने गांव या न्याय पंचायत के सबसे काबिल अभ्यर्थी की योग्यता पर शक करना गलत होगा।
  • शिक्षामित्रों ने कभी यह नहीं कहा कि बी.एड. वालों को शिक्षक मत बनाओ, जबकि सच तो यह है कि बी.एड. वाले उच्च शिक्षा के लिए है। फिर बी.एड. वाले शिक्षामित्रों को अपना अपना दुश्मन क्यों मानते हैं? इस फार्मूले के अनुसार बी.एड. वाले ही बेसिक शिक्षक बनने के योग्य हैं तो डी.एल.एड. और बी.एल.एड. कोर्स का भी भरपूर ताकत से विरोध दर्ज कराइए।
  • टी.ई.टी. 2011 की मार्कशीट एक से दो लाख रुपये तक में बिकी। सफेदा गैंग का पर्दाफाश हुआ। परीक्षा कराने वाले माध्यमिक शिक्षा निदेशक संजय मोहन को जेल हुई, फिर भी काबिलियत का दावा पूरा है। इसके बाद टी.ई.टी. का रिजल्ट गिरकर अधिकतम 25-30 प्रतिशत पहुंच गया। ऐसे में काबिलियत कहां चली गई?
  • अपने जीवन के कीमती 17 साल इस अनुबंध के साथ बेसिक शिक्षा विभाग को दिए कि इस दौरान कोई और काम या अन्य नौकरी नहीं करेंगे। फिर 2009 के बाद शिक्षामित्रों की नियुक्ति नहीं की गई। आज एकदम से इनको हटाना कहां का इंसाफ है?
  • शिक्षामित्र 3,500 रुपये में योग्य थे और 30,000 रुपये में अयोग्य हो गए। अगर शिक्षामित्र रहकर दोबारा पढ़ाएंगे तो कानून का पालन कैसे संभव है? तमाम प्राइवेट स्कूल हैं, जहां आर.टी.ई के मानकों का खुला मजाक उड़ाया जा रहा है। उन्हें मान्यता कैसे दी जाती है, यह सब जानते हैं। यदि शिक्षामित्रों को न लगाया जाता तो बेसिक शिक्षा भी का निजीकरण हो गया होता। ऐसे में कथित बुद्धिजीवी और काबिल लोगों के पास शब्द भी नहीं होते।
        यह सब कहने का मतलब सिर्फ इतना भर है कि आपस में मनमुटाव पैदा न करें और तथ्यों का गहराई से अध्ययन करें। दूसरों को परेशानी में देखकर खुश होना बहादुरी नहीं, बल्कि उसको परेशानी से निकालना ही दिलेरी है। वोट लेकर आपस में लडाना ही उनका काम है, बाकी सब समझदार हैं.....अभी इतना ही, बाकी फिर।
एक हमदर्द/शुभचिंतक

अरशद रसूल

(B. Ed. प्राथमिक
और उच्च प्राथमिक टी.ई.टी. 2011 पास)



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