फिरकापरस्तों के मुंह पर तमाचा रहा स्वतंत्रता दिवस
फिरकापरस्तों के मुंह पर तमाचा रहा स्वतंत्रता दिवस
हज के दौरान सऊदी अरब में भारतीय तिरंगा झंडा फहराया जाना एक स्वच्छ संदेश की मिसाल है। खबर है कि वहां हिन्दुस्तानी हाजियों ने अपने मुल्क की आज़ादी का जश्न मनाया। इसकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है। खासतौर पर यह उन लोगों के लिए एक सीख और वहम दूर करने का भी मौका है, जो एक वर्ग विशेष को शक की नजर से देखते हैं। बरेली हज सेवा समिति के सचिव शराफत खान ने सऊदी अरब में भारतीय हाजियों के साथ तिरंगा झंडा फहराया और मिठाइयां बांटकर आजादी का जश्न मनाया। हज के दौरान इस तरह की गतिविधियां अपने मुल्क से मुहब्बत का पुख्ता सुबूत है। कहने को तो कोई, कुछ भी कह सकता है और कैसा भी इल्जाम लगा सकता है। यह उन लोगों फिरकापरस्तों के मुंह पर करारा तमाचा भी है जो एक वर्ग विशेष को शक की नजर से देखते हैं।
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को तो कुछ लोगों की देशभक्ति पर भी शक है। मिसाल के तौर पर मदरसों को तो यहां तक शक की नजर से देखा जा रहा है कि सरकार ने वहां तिरंगा फहराने और राष्ट्रीय गान गाने का फरमान जारी किया था। इतना ही नहीं सारी गतिविधियों की वीडियोग्राफी कराने का भी आदेश था। इससे इतर हकीकत तो यह है कि मदरसों ने कभी भी तिरंगा फहराने से इन्कार ही नहीं किया। इस मुद्दे पर कभी भी विवाद या न-नुकर की बात भी सामने नहीं आई। यह संस्थान भी बाकायदा जश्ने आजादी या यौमे जमहूरियत का जश्न मनाते रहे हैं।
इन सबसे हटकर देखा जाए तो भारतीय मुसलमानों को शक की नजर से देखा जाता रहा है, जो कि सरासर गलत है। हां, यह हो सकता है कि एकाध प्रतिशत मुसलमान देश के प्रति वफादार न भी हों। इसी तरह अन्य वर्गों के कुछ लोग भी देश के प्रति हो सकता है कि वफादार न हों। ऐसा भी नहीं है देश की आजादी हासिल करने में किसी एक वर्ग विशेष की भूमिका रही हो। सभी ने कुर्बानी दी, तब कहीं यह दिन देखने को मिल सका है। मेरा विचार तो यही है कि विकास और जनहित के मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने के लिए इन मुद्दों को हवा दी जा रही है। देश में एक बड़ी पॉवर ऐसी भी है जो मीडिया को भी उलझाने की दिशा में अपना काम कर रही हे। हमारे देश के लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी इस मकड़जाल में उलझकर रह गया है। मिशन से व्यवसाय बन चुका यह स्तंभ अपनी टीआरपी और व्यवसाय बढ़ाने के लिए सारे उसूलों से समझौता करने से गुरेज नहीं कर पा रहा है।
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को तो कुछ लोगों की देशभक्ति पर भी शक है। मिसाल के तौर पर मदरसों को तो यहां तक शक की नजर से देखा जा रहा है कि सरकार ने वहां तिरंगा फहराने और राष्ट्रीय गान गाने का फरमान जारी किया था। इतना ही नहीं सारी गतिविधियों की वीडियोग्राफी कराने का भी आदेश था। इससे इतर हकीकत तो यह है कि मदरसों ने कभी भी तिरंगा फहराने से इन्कार ही नहीं किया। इस मुद्दे पर कभी भी विवाद या न-नुकर की बात भी सामने नहीं आई। यह संस्थान भी बाकायदा जश्ने आजादी या यौमे जमहूरियत का जश्न मनाते रहे हैं।
इन सबसे हटकर देखा जाए तो भारतीय मुसलमानों को शक की नजर से देखा जाता रहा है, जो कि सरासर गलत है। हां, यह हो सकता है कि एकाध प्रतिशत मुसलमान देश के प्रति वफादार न भी हों। इसी तरह अन्य वर्गों के कुछ लोग भी देश के प्रति हो सकता है कि वफादार न हों। ऐसा भी नहीं है देश की आजादी हासिल करने में किसी एक वर्ग विशेष की भूमिका रही हो। सभी ने कुर्बानी दी, तब कहीं यह दिन देखने को मिल सका है। मेरा विचार तो यही है कि विकास और जनहित के मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने के लिए इन मुद्दों को हवा दी जा रही है। देश में एक बड़ी पॉवर ऐसी भी है जो मीडिया को भी उलझाने की दिशा में अपना काम कर रही हे। हमारे देश के लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी इस मकड़जाल में उलझकर रह गया है। मिशन से व्यवसाय बन चुका यह स्तंभ अपनी टीआरपी और व्यवसाय बढ़ाने के लिए सारे उसूलों से समझौता करने से गुरेज नहीं कर पा रहा है।
बरेली मसलक ने राष्ट्रीय गान को नकारा:
इस सब से उलट एक दूसरी चीज और सामने आई। बरेलवी मसलक ने तो सीएम के इस फरमान को सिरे से ही नकार दिया है। उलमा ने राष्ट्रीय गान के मसले पर अपना शरई फैसला सुनाया। आल इंडिया जमात रजा-ए मुस्तफा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना असजद रजा खां का कहना है कि जिसको राष्ट्रीय गान कहा जा रहा है, वह गीत आजादी से पहले 1911 में कोलकाता की एक कान्फ्रेंस के दौरान अंग्रेज हुक्मरान जॉर्ज पंचम की शान में गाया गया था। इसमें अधिनायक उसी को कहा गया है, यानी यह पूरी तरह अंग्रेज हुक्मरान की शान में गाया गया कसीदा था। इसलिए राष्ट्र गान गाने के मामले किसी से भी जबरदस्ती नहीं की जा सकती है। केरल के छात्रों की एक रिट पर सुप्रीम कोर्ट अपना रुख साफ कर चुका है। यूपी में भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह राजस्थान के गवर्नर रहते हुए जयपुर विश्वविद्यालय के 26वें दीक्षांत समारोह में राष्ट्र गान पर टिप्पणी कर चुके हैं। वहीं पूर्व जस्टिस मार्कंडेय काटजू भी राष्ट्रीय गान का विरोध कर चुके हैं। बरेली मसलक के मौलाना असजद रजा खां ने “सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा...” गीत की वकालत करते हुए कहा है कि शरीयत के दायरे में रहकर इस गीत को गाया जा सकता है।
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इन बातों के बीच मुझे रहबर जौनपुरी साहब की एक नज्म याद आ रही है। बचपन में एक रिसाले में यह नज्म पढ़ी थी। काफी कोशिशों के बाद आज उस नज्म तक पहुंच सका हूं, जिसे आपके सामने पेश कर रहा हूं-
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आवाज़-ए-जंज़ीर
हम हैं हिन्दी हमें इस बात से इंकार नहीं,
हम वतन-दोस्त हैं गै़रों के तरफ़दार नहीं,
हम हैं मंज़िल का निशाँ राह की दीवार नहीं,
हम वफादार हैं इस देश के ग़द्दार नहीं,
हम कोई फित्ना गरो गासिबो अगियार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।
तुर्कियो शामो मराकश नहीं अपना मसकन,
सरज़मीं हिंद की सदियों से हमारा है वतन,
अपने अफसाने का उन्वाँ है यही गंगो जमन,
अब किसी और से कुछ हमको सरोकार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।
हमने कब हिंद के ख्वाबों की तिजारत की है,
हमने कब मुल्क के ख्वाबों से बगावत की है,
हमने कब साज़िशी लोगों की हिमायत की है,
हमने हर हाल में दस्तूर की इज़्ज़त की है,
हम ज़माने की निगाहों में ख़तावार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।
हिंद के सर की लगाई नहीं हमने बोली,
बेच कर राज़ नहीं हमनें भरी है झोली,
हमने खेली नहीं इंदिरा के लहू से होली,
हमने बापू पे चलाई नहीं हर्गिज़ गोली,
हम जफाकश है जफाकेशो जफाकार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।
हमने इस देश को ज़िन्दा फन-ए-तामीर दिया,
हमने ही ताजमहल जल्वा-ए-कश्मीर दिया,
अकबरी जर्फ दिया हमने जहाँगीर दिया,
हम किसी दाम-ए-तास्सुब में गिरफ्तार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।
हमसे ताबिंदा हुआ जज़्बए ईमान यहाँ,
शाह-ए-अजमेर की बाकी है अभी शान यहाँ,
हैं अमर जायसी औ' रहिमन-ओ-रसख़ान यहाँ,
अज़्मत-ए-हिंद पे रज़िया हुई कुर्बान यहाँ,
सर कटा देना हमारे लिए दुशवार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।
की है भारत के हरीफों से लड़ाई हमनें,
की है ज़ुल्मात में भी राहनुमाई हमनें,
तख़्तए दार पे कीनग़्मासराई हमने,
की है शाही पे भी तौकीरे गदाई हमने,
साहिबे अम्न हैं हम साहिबे पैकार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।
सफ़ए हिन्द पे है टीपू-ए-जाँबाज़ का नाम,
था जो आज़ादी की तहरीक का सालारो ईमाम,
जिसने बरपा किया दुशमन की रगों में कोहराम,
जिसने इस देश की धरती को लिया हज्वे तमाम,
इससे बढ़कर तो कोई जज़्बए ईसार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।
तख़्त-ए-दिल्ली का वो मज़लूम शहंशाह ज़फर,
क़ौमे-अफरंग पे जो बनके गिरा बर्को शरर,
जिसने इस देश पे कुर्बान किए अपने पिसर,
हिन्द की ख़ाक मयस्सर न हुई जिसको मगर,
उसकी खिदमात का अब कोई परस्तार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।
गौस खाँ बन के दिखाई यहाँ ज़ुर्रत किसने,
जंग में फूँक दी तोपों से क़यामत किसने,
रानी झाँसी पे रखा दस्त-ए-हिफाज़त किसने,
जान पर खेल के फौजों की कयादत किसने,
हम किसी तौर भी रुसवा सरे बाज़ार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।
अपनी सरहद के निगेहबान को क्यों भूल गए,
जंग-ए-कश्मीर की उस जान को क्यों भूल गए,
एक आहननुमा इंसान को क्यों भूल गए,
यानी ब्रिगेडियर उस्मान को क्यों भूल गए,
उसका कुछ ज़िक्र नहीं उसका कुछ इज़हार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।
हमपे जब एक पड़ोसी नें किया हमाला शदीद,
क़ामयाबी की बहुत अपनी जिसे थी उम्मीद,
पास जिसके थे सभी असलहाए असरे जदीद,
दे गया मात का पैगाम उसे मर के हमीद,
इस हकीकत से किसी शख्स को इंकार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।
खूब वाकिफ हैं सभी शौकतो जौहर से यहाँ,
थे जो तहरीके खिलाफत के कभी रूहे रवाँ,
जिनका हर गाम था दुशमन के लिए संगे गराँ,
जिनकी तकरीरों से दाकस्रे विलायत लरजाँ,
आज तारीख में वैसा कोई किरदार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।
हमनें अहमद की रिफाकत का सिला कब माँगा,
हमने ज़ाकिर की मोहब्बत का सिला कब माँगा,
हमने आज़ाद की जुर्अत का सिला कब माँगा,
हमने किदवई की खिदमत का सिला कब माँगा,
हम किसी जुर्अत ओ शोहरत के तलबग़ार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।
हमने बाज़ीचए आलम को किया ज़ेरो ज़बर,
हमने मुश्ताक औ पटौदी से दिए अहले हुनर,
किसकी मीरास हैं किरमानी सलीमो अज़हर,
क्या नहीं शाने वतन शाही जो ईनामो ज़फर,
बाइसे फक्र हैं हम बाईसे आज़ार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।
हमने साईंस का शोबा किया आबाद यहाँ,
हमने मिज़इलो राकेट किए ईज़ाद यहाँ,
फौज को फिक्र से हमने किया आज़ाद यहाँ,
है कलाम ऐसा कोई ज़हने खु़दादाद यहाँ,
अग्नि औ पृथ्वी जैसा कोई शहकार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।
परदए सिमी की तौकीर बना किसका ज़लाल,
किसने मौसीकी औ नग्मा को दिया सोज़े बिलाल,
है कोई यूसुफो नौशाद की साहिर की मिसाल,
हमसे बढ़कर कोई फनकारों में फनकार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।
हमने हैं देखे हैं बदलते हुए हालात यहाँ,
हमने देखे हैं सिसकते हुए जज़्बात यहाँ,
हमने देखे हैं कयामत के फसादात यहाँ
हमने जलते हुए देखे हैं मकानात यहाँ,
जि़न्दगी कौन से दिन हमपे गला बार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

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