दिखावे के दौर में इनका क्या काम ?
दिखावे के दौर में इनका क्या काम ?
कुछ दिन पहले की ही तो बात है। मैं एक गुरुतुल्य सीनियर साथी के यहां गया। आखिर एक अरसा अभी तो हो गया था उनसे मुलाकात हुए। यह वह हस्ती है जिसने मुझे क़लम पकड़ने का तरीका और सलीक़ सिखाया है। ज़्यादा तो नहीं लेकिन उनका पहले दिन का सबक तो आज भी याद है। उन्होंने समझाया था कि छोटे वाक्य लिखा करो, भाषा सहज और सरल, लेखन की भाषा पाठक या समुदाय के अनुसार हो। इसके अलावा और भी बहुत कुछ सिखाया था।
मुझे देखकर उनकी आंखों में एक अजीब सी चमक आ गई। चलिए, खैर... मैंने अपने हाथ का पैकेट उनकी तरफ बढ़ाया। बोले- अब यह तो नहीं कहूंगा कि इसकी क्या ज़रूरत थी, इसकी ज़रूरत तो तेरी भावनाएं ही समझती होंगी... इतना कहकर कुछ देर के लिए वह निशब्द से हो गए। इस बुीच मैंने भी खामोशी की चादर ओढ़ ली। फिर गुरुजी ने ही सन्नाटा तोड़ा, बेटा! इतवार तो हर हफ्ते आता होगा? उनके इस सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। हां, इस बात का एहसास हो चला था कि शहर की आबो-हवा मुझ पर भी असर अंदाज हो चुकी है। मैं भी तरक़्क़ीयाफ्ता (प्रगतिशील) समाज का ही एक हिस्सा हो चुका हूं। सीखने-सिखाने के सेशन अब मोबाइल ओर लैपटॉप के साथ गुज़र रहे हैं। न हमें किसी का दर्द है, न हमारा किसी को दर्द का एहसास।
इसके बाद मैंने उनकी बेटी से अपने फोन में फोटो खिंचवाया। फोटो के बाद गुरुजी इधर-उधर की बातें करते रहे। कई बातों-कामों को दोहराया, जिन्हें मैं भूल चुका था। फिर कहा कि तू कुछ भी भूल जाए लेकिन आज का यह फोटो फेसबुक पर पोस्ट करना नहीं भूलेगा। इसके बाद उन्होंने फोटो और मुलाकात का हवाला कहीं भी सार्वजनिक न करने की हिदायत के साथ मुझे विदा किया। यह मेरी भी समझ में नहीं आया कि इस भौतिकवादी, बनावटी और दिखावे के जमाने में ऐसे लोग क्या कर रहे हैं ? आखिर इनका इस जमाने में क्या काम रह गया है ? शायद हमें सीख देना...
मुझे देखकर उनकी आंखों में एक अजीब सी चमक आ गई। चलिए, खैर... मैंने अपने हाथ का पैकेट उनकी तरफ बढ़ाया। बोले- अब यह तो नहीं कहूंगा कि इसकी क्या ज़रूरत थी, इसकी ज़रूरत तो तेरी भावनाएं ही समझती होंगी... इतना कहकर कुछ देर के लिए वह निशब्द से हो गए। इस बुीच मैंने भी खामोशी की चादर ओढ़ ली। फिर गुरुजी ने ही सन्नाटा तोड़ा, बेटा! इतवार तो हर हफ्ते आता होगा? उनके इस सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। हां, इस बात का एहसास हो चला था कि शहर की आबो-हवा मुझ पर भी असर अंदाज हो चुकी है। मैं भी तरक़्क़ीयाफ्ता (प्रगतिशील) समाज का ही एक हिस्सा हो चुका हूं। सीखने-सिखाने के सेशन अब मोबाइल ओर लैपटॉप के साथ गुज़र रहे हैं। न हमें किसी का दर्द है, न हमारा किसी को दर्द का एहसास।
इसके बाद मैंने उनकी बेटी से अपने फोन में फोटो खिंचवाया। फोटो के बाद गुरुजी इधर-उधर की बातें करते रहे। कई बातों-कामों को दोहराया, जिन्हें मैं भूल चुका था। फिर कहा कि तू कुछ भी भूल जाए लेकिन आज का यह फोटो फेसबुक पर पोस्ट करना नहीं भूलेगा। इसके बाद उन्होंने फोटो और मुलाकात का हवाला कहीं भी सार्वजनिक न करने की हिदायत के साथ मुझे विदा किया। यह मेरी भी समझ में नहीं आया कि इस भौतिकवादी, बनावटी और दिखावे के जमाने में ऐसे लोग क्या कर रहे हैं ? आखिर इनका इस जमाने में क्या काम रह गया है ? शायद हमें सीख देना...

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